रायपुर :- ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में ‘विराम’ के बाद सरकार द्वारा तथाकथित ‘राजनयिक पहुंच’ के तहत भेजे गए सभी सात संसदीय प्रतिनिधिमंडल वापस आ गए हैं...
रायपुर :- ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में ‘विराम’ के बाद सरकार द्वारा तथाकथित ‘राजनयिक पहुंच’ के तहत भेजे गए सभी सात संसदीय प्रतिनिधिमंडल वापस आ गए हैं। अपनी गंभीर आपत्तियों और सवालों के बावजूद, सीपीआई(एम) ने सरकार के अनुरोध को स्वीकार किया और इनमें से एक प्रतिनिधिमंडल में भाग भी लिया। सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले और उसके बाद के सैन्य अभियान पर चर्चा करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाए।
आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पूरा देश एकजुट है। सरकार को इस एकता का सम्मान करना चाहिए और लोगों को परेशान करने वाले कई सवालों का जवाब देकर अपना संवैधानिक कर्तव्य पूरा करना चाहिए। इसके बजाय, प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी देश भर में घूम-घूम कर सांप्रदायिक नफरत फैलाने और कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के लिए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का इस्तेमाल कर रही है। प्रधानमंत्री और आरएसएस/बीजेपी के नेतृत्व में इस अभियान का उद्देश्य आतंकवाद का सामना करने और उसे हराने के लिए जरूरी एकता को कमजोर करना है। आइए, लोगों के बीच पैदा हुई कुछ चिंताओं पर गौर करें।
पहलगाम हमले के लिए जिम्मेदार आतंकवादी अभी भी फरार हैं। घटना को 40 दिन से ज़्यादा हो चुके हैं, फिर भी इस बारे में कोई स्पष्ट जवाब नहीं है कि वे देश में कैसे घुसे, हमला कैसे किया या अब वे कहाँ हैं। पीड़ितों को चुन-चुनकर निशाना बनाना हमारी सुरक्षा एजेंसियों की ओर से गंभीर चूक की ओर इशारा करता है। ये सभी एजेंसियां केंद्र सरकार के अधीन काम करती हैं। सरकार को इस विफलता की ज़िम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए, एक गहन और निष्पक्ष जांच शुरू करनी चाहिए, ज़िम्मेदारी तय करनी चाहिए और जनता को स्पष्ट जवाब देना चाहिए। यह न्यूनतम जिम्मेदारी है, जो आम जनता के प्रति भाजपा सरकार की बनती है।
इसके बजाय, आरएसएस और भाजपा ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर एक ज़हरीला नफ़रत भरा अभियान चलाया है। उनके सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ने किसी को भी नहीं बख्शा है। उन्होंने जानबूझकर कश्मीरी लोगों की साहसी प्रतिक्रिया को नज़रअंदाज़ किया है। उन्होंने इस तथ्य से आँखें मूंद लीं कि एक कश्मीरी टट्टू संचालक ने अपनी सेवाएँ किराए पर लेने वाले पर्यटकों की रक्षा करने की कोशिश करते हुए अपनी जान गंवा दी। कश्मीरियों द्वारा निस्वार्थ सहायता के कई कार्य किए गए। उन्होंने घायलों को अस्पताल पहुँचाने में मदद की और पर्यटकों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया। पहलगाम में कई पर्यटकों ने इसे स्वीकार किया। केरल की एक युवती आरती आर मेनन, जिसने हमले में अपने पिता एन रामचंद्रन को खो दिया, ने कहा कि हालाँकि उसने अपने पिता को खो दिया, लेकिन उसे कश्मीर में दो भाई मिले - मुसाफ़र और समीर - जिन्होंने उस कठिन समय में उसकी मदद की।
कश्मीर के लोगों ने जिस तरह से एकजुट होकर आतंकी हमले की निंदा की, वह वाकई अनुकरणीय है। दुकानें स्वेच्छा से बंद कर दी गईं, मोमबत्ती जलाकर जुलूस निकाले गए और शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुए। समय की मांग है कि ऐसी एकता को और मजबूत किया जाए। इसके बजाय, सांप्रदायिक ताकतें लोगों को बांटने की अपनी दुर्भावनापूर्ण कोशिशों के लिए बेनकाब हो गईं। विभिन्न शहरों में कश्मीरी छात्रों पर हमले किए गए। नवविवाहिता हिमांशी नरवाल, जिसने अपने पति, जो नौसेना अधिकारी थे, को खो दिया, के खिलाफ घृणित और अभद्र घृणा अभियान चलाया गया। उसका एकमात्र 'अपराध' यह था कि उसने अपील की थी कि इस हमले का इस्तेमाल कश्मीरियों और मुसलमानों को निशाना बनाने या धार्मिक घृणा भड़काने के बहाने के रूप में न किया जाए। भारत सरकार इस घृणा अभियान पर पूरी तरह से चुप रही, जिसने ऑनलाइन ट्रोल की सांप्रदायिक सेना को और बढ़ावा दिया।
भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों में कई भाजपा नेताओं और मंत्रियों ने अस्वीकार्य और अक्षम्य टिप्पणियां की हैं, यहां तक कि सेना के प्रवक्ता और विदेश सचिव के खिलाफ भी। ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए सरकार को मजबूर करने के लिए अदालत के हस्तक्षेप की जरूरत पड़ी। जबकि सरकार सांप्रदायिक जहर फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने में हिचकिचाती है, यह स्वतंत्र मीडिया और तथ्यों और एकता का आह्वान करने वाले व्यक्तियों को निशाना बनाने में सक्रिय रही है। जिस तेजी से अशोका विश्वविद्यालय में एक एसोसिएट प्रोफेसर के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई और 'द वायर' की वेबसाइट को अचानक बंद कर दिया गया, उससे सरकार का गहरा पक्षपाती और तानाशाही चरित्र उजागर होता है। वास्तव में, ऐसी सरकार से बहुत कम उम्मीद की जा सकती है, जिसका नेता - प्रधानमंत्री - खुद एक कट्टर राष्ट्रवादी अभियान में सबसे आगे हो। जैसी कि अब यह उनकी पहचान ही बन गई है, प्रधानमंत्री स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले प्रेस के माध्यम से संसद या लोगों के प्रति जवाबदेह होने से इंकार करते हैं। वह केवल उन चुनिंदा मीडिया आउटलेट्स को साक्षात्कार देते हैं, जो पहले से स्वीकृत, नरम सवाल पूछने के लिए जाने जाते हैं। वह लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस से बचते हैं, फिर भी हमेशा एकालाप करने और व्याख्यान देने के लिए उत्सुक रहते हैं। ‘ऑपरेशन’ के बाद अपने राष्ट्रीय संबोधन में प्रधानमंत्री ने आतंकवाद पर एक नया सिद्धांत ही प्रस्तुत कर दिया, (जिस पर इस अंक में एक अलग लेख में विस्तार से चर्चा की गई है।)।
सीपीआई(एम) ने हमेशा आतंकवाद और उससे निपटने के तरीके पर स्पष्ट और सुसंगत रुख अपनाया है। यह दावा करना स्वीकार्य नहीं है कि युद्ध ही एकमात्र विकल्प है। कूटनीतिक, आर्थिक, राजनीतिक और रणनीतिक -- एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। ऐसे बहुआयामी प्रयासों के माध्यम से आतंकवादियों और उनके समर्थकों को अलग-थलग किया जाना चाहिए। बहरहाल, इस व्यापक दृष्टिकोण को अपनाने के बजाय, सरकार केवल युद्ध और वृद्धि पर ध्यान केंद्रित कर रही है, जो निश्चित रूप से प्रतिकूल परिणाम देगा।
भारत और पाकिस्तान के बीच कोई भी विवाद बातचीत के जरिए सुलझाया जा सकता है और सुलझाया भी जाना चाहिए। हमें किसी बाहरी पक्ष को हमारे द्विपक्षीय संबंधों में हस्तक्षेप या मध्यस्थता की अनुमति नहीं देनी चाहिए। माकपा कश्मीर मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण का कड़ा विरोध करती है। बहरहाल, मौजूदा भाजपा नीत सरकार की कार्रवाईयों ने अमेरिकी हस्तक्षेप को सक्षम किया है और मामले के अंतर्राष्ट्रीयकरण में योगदान दिया है। यह सरकार युद्ध विराम कराने में अपनी भूमिका के बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा बार-बार किए गए दावों का दृढ़ता से खंडन करने में विफल रही है। ये दावे अमेरिकी प्रशासन द्वारा अमेरिकी अदालत में पेश किए गए शपथ पत्र में भी शामिल थे। इस तरह का हस्तक्षेप लंबे समय से चली आ रही राष्ट्रीय आम सहमति का खंडन करता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच सभी मुद्दे बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के द्विपक्षीय रूप से सुलझाए जाएंगे। वास्तव में, हमने कश्मीर मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय बनाने और तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की पाकिस्तान की कोशिशों का लगातार विरोध किया है।
संसद का विशेष सत्र बुलाने से भाजपा सरकार का इंकार कई गंभीर सवाल खड़े करता है। संसद वह मंच है, जहां सरकार से मुद्दों को स्पष्ट करने और जनता के प्रतिनिधियों द्वारा पूछे गए सवालों का जवाब देने की उम्मीद की जाती है। इन मांगों पर ध्यान न देना एक तानाशाही चरित्र को दर्शाता है। सरकार द्वारा बुलाई गई दो सर्वदलीय बैठकों से प्रधानमंत्री का जानबूझकर अनुपस्थित रहना यह सवाल खड़ा करता है कि क्या सरकार वाकई आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पूरे देश को साथ लेकर चलने के लिए प्रतिबद्ध है। सबसे भेदभावपूर्ण कृत्यों में से एक, केंद्र सरकार का यह फैसला था कि उसने ऑपरेशन के बारे में सिर्फ भाजपा-एनडीए शासित मुख्यमंत्रियों को ही जानकारी दी। क्या सरकार विपक्ष शासित राज्यों को भारतीय संघ के दायरे से बाहर मानती है, जो समान जानकारी और सहयोग के योग्य नहीं हैं? यह स्पष्ट रूप से भाजपा के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में उसकी रुचि की कमी को उजागर करता है।
आतंकवाद से लड़ने में हमारी ताकत देश की एकता में निहित है। यह एकता पहलगाम हमले के बाद स्पष्ट रूप से दिखाई दी, जब सभी धर्मों, जातियों और क्षेत्रों के लोग हिंसा की निंदा करने के लिए एक साथ आए। इस समय चल रहे घृणा अभियान, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों को लक्षित करने वाले अभियान, बर्दाश्त नहीं किए जाने चाहिए। ऐसे अभियान हमारे देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा हैं और हमारे स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों के विपरीत हैं। भाजपा सरकार, खुले तौर पर और गुप्त रूप से, इन अभियानों का समर्थन करती है। जब तक नफरत को जवाबदेह नहीं ठहराया जाता और दंडित नहीं किया जाता, तब तक इन विभाजनकारी और खतरनाक प्रयासों को समाप्त करने की कोई उम्मीद नहीं हो सकती।
नफरत और दूसरों को अलग-थलग करने की भावना हमेशा ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करती है, जिसमें सांप्रदायिक ताकतें पनपती हैं। यह सुनिश्चित करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हमारे देश में ऐसी परिस्थितियाँ जड़ न पकड़ पाएं। शांति तभी संभव है, जब नफरत को खत्म किया जाए। हमें नफरत के सभी रूपों के खिलाफ़ लड़ाई में एकजुट होना चाहिए, चाहे वह कहीं से भी शुरू हुई हो। आज के संदर्भ में, यह हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी होनी चाहिए।
यह जरूरी है कि हम भाजपा द्वारा प्रचारित झूठ का मुकाबला करने के लिए पहल करें। धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्य, जो हमारे देश की समन्वयकारी विरासत का अभिन्न अंग हैं, उन्हें दृढ़ता से कायम रखा जाना चाहिए। सरकार को जम्मू-कश्मीर के लोगों का विश्वास बहाल करने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए, जिसकी शुरुआत राज्य का दर्जा और उसके विशेष दर्जे की बहाली से होनी चाहिए। उसे निर्वाचित सरकार को अपने संवैधानिक रूप से अनिवार्य कार्यों को पूरा करने की अनुमति भी देनी चाहिए।
हमें केंद्र सरकार से जवाबदेही की मांग जारी रखनी चाहिए। इसकी शुरुआत पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले और उसके बाद के घटनाक्रम पर व्यापक चर्चा के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग से होनी चाहिए।
(लेखक माकपा के नव-निर्वाचित महासचिव हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)
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