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नोटबंदी से वोटबंदी तक

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नई दिल्ली :- बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने परीक्षण के लिए स्वीक...

नई दिल्ली :- बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने परीक्षण के लिए स्वीकार कर लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय के तत्काल जरूरी होने को पहचानते हुए, इस पर विचार के लिए तीन दिन बाद, बृहस्पतिवार 10 जुलाई की तारीख तय की है।



 इस संबंध में संबंधित पक्षों के लिए नोटिस जारी कर दिए गए हैं। बिहार में विधानसभाई चुनाव से पहले मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण की इस प्रक्रिया के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में छ: याचिकाएं पहुंची थीं। इनमें, विशेष रूप से चुनाव सुधारों से संबंधित पहलुओं पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) तथा जनाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के अलावा तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) सांसद मनोज कुमार झा की याचिकाएं शामिल हैं। 



सभी याचिकाओं का मुख्य मुद्दा एक ही है, विधानसभाई चुनाव से पहले इतने कम समय में की जा रही मतदाता सूचियों में भारी फेर-बदल की यह पूरी कसरत, खासतौर पर करोड़ों की संख्या में वंचितों तथा कमजोर व हाशिए के तबके के लोगों से मताधिकार छीनने का ही काम करेगी। इसलिए, इस प्रक्रिया पर ही रोक लगाने की प्रार्थना की गयी है। 


कहने की जरूरत नहीं है कि अब सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हुई हैं। लेकिन, 25 जून को मतदाता सूची पुनरीक्षण की इस प्रक्रिया के शुरू होने से अब तक इस मामले भारतीय चुनाव आयोग या ईसीआई का जो आचरण रहा है, मोदी राज के ग्यारह साल में मजबूती से कायम कर दी गयी शासकीय संस्कृति को ही प्रतिबिंबित करता है। इस शासकीय संस्कृति के तीन खास तत्व हैं। पहला, नाटकीय तरीके से बड़े लगने वाले और आम जनता के लिए कड़े साबित होने जा रहे, कथित रूप से 'साहसिक' फैसले लेना। इन कदमों की साहसिकता का एक ही सबूत होता है, जनता की तकलीफों की और इन तकलीफों को स्वर देने वाले राजनीतिक विपक्ष के विरोध की परवाह ही नहीं करते हुए, आगे बढ़ते जाना। दूसरा, जनता की मुश्किलों के रूप में इन निर्णयों के दुष्परिणामों के सामने आने पर, लीपा-पोती करने से लेकर, पांव पीछे खींचने तक की कोशिशेें करना। और तीसरा, यह सब करते हुए भी इसका शासकीय अहंकार दिखाना कि शासन का फैसला पूरी तरह से सही था और उसमें कोई बदलाव नहीं किया जा रहा है! नोटबंदी के मामले में ये तीनों विशेषताएं खुलकर सामने आयी थीं। शहरबंदी या लॉकडाउन में भी ये तीनों ही विशेषताएं देखने को मिली थीं। और अब इस मतदाता सूची पुनरीक्षण में, जिसे उचित ही बिहार के महागठबंध के झंडे तले संगठि०त विपक्ष ने 'वोटबंदी' का नाम दिया है, इस छोटी सी अवधि में ही इन तीनों विशेषताओं के दर्शन हो चुके हैं। नोट करने वाली बात यह है कि चुनाव आयोग, एक स्वतंत्र वैधानिक संस्था है, इसके बावजूद हम उसे खास मोदीराज की राजनीतिक संस्कृति में रंगा हुआ देख रहे हैं।  


जहां तक कथित रूप से 'साहसिक' निर्णय का सवाल है, चुनाव से ऐन पहले और वह भी कुल तीन महीने से भी कम समय में, आठ करोड़ के लगभग मतदाताओं की सूचियां एक तरह से नये सिरे से बनाना, अगर इतना खतरनाक नहीं होता, तो बेशक साहसिक तो माना ही जा सकता था। अब यह सभी जान चुके हैं कि बिहार में मतदाता सूचियों में इस तरह का गहन पुनरीक्षण, 2003 में हुआ था। उसके 22 साल बाद, इस गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया को नये सिरे से दोहराए जाने की, एक 'बड़ा काम' कर के दिखाने की ललक के सिवा और क्या आवश्यकता थी, इसका चुनाव आयोग की ओर से कोई संतोषजनक जवाब नहीं आया है। 


बेशक, इस निर्णय से पहले चुनाव प्रक्रिया के मुख्य हितधारकों के रूप में राजनीतिक पार्टियों के साथ किसी तरह के परामर्श में तो नहीं, बहरहाल आलोचना के तीखे होते स्वरों के सामने चुनाव आयोग ने इस कसरत को जरूरी साबित करने की कोशिश की है। लेकिन, चुनाव आयोग द्वारा दी गयी दलीलें इतनी लचर हैं कि खुद चुनाव आयोग के अधिकारीगण जहां-तहां मैदानी स्तर पर इस फैसले की जरूरत बताते हुए, अक्सर 'पहले नागरिकता तय करने' की दलील में खिसक जाते हैं, जो कि जाहिर है कि चुनाव आयोग का काम नहीं है और जिससे चुनाव आयोग अगर सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने फैसले का बचाव करते हुए, अपना दामन ही नहीं छुड़ा ले, तो ही आश्चर्य की बात होगी। एक और प्रमुख कारण, जिसका जिक्र चुनाव आयोग के मुंह से निकल गया है, हालांकि इसे भी आयोग द्वारा अब ढांपने की कोशिश की जाएगी, बिहार से रोजी-रोटी कमाने के लिए दूसरे राज्यों में जाने वाले मेहनतकशों की संख्या करोड़ों में होना है। 


इन मेहनतकशों का मकान ही बिहार में नहीं होता है, बिहार से, उसकी नियति से उनका जीवंत रिश्ता रहता है, जबकि दूसरे राज्यों के जीवन से, जहां वे रोजी-रोटी के लिए रहते हैं, वे वैसा आवयविक रिश्ता नहीं बना पाते हैं। सामान्य रूप से अपने गृह राज्य में नहीं रहने के आधार पर, उन्हें बिहार के मतदाता की हैसियत से बेदखल करने की आयोग की नीयत, कानून के सामने एक मिनट भी नहीं टिक पाएगी। चुनाव आयोग को यह तय करने का तो अधिकार है कि ये प्रवासी, अगर बिहार में मतदाता हैं तो दूसरे राज्यों में भी मतदाता नहीं बनें, लेकिन उसे यह तय करने का अधिकार नहीं है कि किसी प्रवासी को, अपने गृह राज्य में मतदान करना चाहिए या अपने काम की जगह पर। 


अपने इस 'बड़े' निर्णय के बचाव के लिए चुनाव आयोग, एक सरासर अर्द्घसत्य का सहारा लेता है। वह राजनीतिक हितधारकों के साथ किन्हीं 'चार हजार परामर्शों' की बार-बार दुहाई देता रहा है। और इसके साथ ही यह दलील दोहराता आया है कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने मतदाता सूचियों में सुधार की जरूरत पर जोर दिया था। लेकिन, चुनाव आयोग इन दलीलों के जरिए इस सच्चाई को छुपाने की कोशिश करता है कि न तो किसी भी राजनीतिक पार्टी ने मतदाता सूची के इस तरह के सघन पुनरीक्षण की मांग की थी और न ही आयोग ने किसी भी राजनीतिक पार्टी से इस तरह के पुनरीक्षण को लेकर कोई परामर्श किया था। इसके विपरीत, इस फैसले का राजनीतिक पार्टियों के सिर पर अचानक बम की तरह फोड़ दिया जाना ही, आयोग की नजरों में इस फैसले को बड़ा या साहसिक बनाता था। 


नोटबंदी जैसी दूसरी विशेषता तब दिखाई दी, जब चुनाव आयोग ने गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया वाकई शुरू की। अब वे जमीनी सच्चाइयां उसके सामने थीं, जिन्हें सिर्फ प्रचार के सहारे हवा में नहीं उड़ाया जा सकता था। सबसे बड़ी समस्या, जैसा कि सभी टिप्पणीकार शुरू से ही रेखांकित कर रहे थे, जन्म प्रमाणपत्र समेत उन दस्तावेजों के जुटाए जाने की थी, जो मतदाता के रूप में नामांकन के फार्म के साथ, तीन श्रेणियों मेें मतदाताओं को अलग-अलग हद तक, जमा कराने हैं और 26 जुलाई तक जमा कराने हैं। यह साफ होने में जरा भी देर नहीं लगी कि करोड़ों मतदाताओं के लिए, जिनमें गरीब भूमिहीन तथा गरीब किसान, मजदूर, प्रवासी मजदूर, कम पढ़े, निचली मानी जाने वाली जातियों के लोगों और महिलाओं की संख्या खासतौर पर बड़ी होगी, आवश्यक सर्टिफिकेट जमा करना ही नहीं, तस्वीर से युक्त फार्म भरकर जमा कराना भी, कठिन परीक्षा होगी। 


पहले पग पर इस कठिनाई के सामने पहले चुनाव आयोग की ओर से नया स्पष्टीकरण दिया गया कि 2003 की मतदाता सूची में जिनका नाम है, उनके लिए तस्वीर के साथ फार्म के साथ, सिर्फ मतदाता सूची के संबंधित अंश की फोटो कापी देना ही काफी होगा। फिर और स्पष्टीकरण आया कि 2003 की मतदाता सूची में जिनके नाम नहीं हैं, उनके माता-पिता का नाम अगर उक्त मतदाता सूची में है, तो उनके जन्म प्रमाणपत्र की जगह, मतदाता सूची के संबंधित अंश की फोटो कापी लगाना काफी होगा। इसके बाद भी, जब मुश्किलें कम नहीं हुईं तो चुनाव आयोग की ओर से कह दिया गया कि पहले सिर्फ फार्म भरकर जमा कराया जाए, भले ही उसमें तस्वीर भी नहीं हो। बाकी दस्तावेजों को बाद में देखी जाएगी। 


लेकिन, जब राजनीतिक पार्टियों ने इसे चुनाव आयोग की ओर से कठिनाइयों को देखते हुए, नियमों में बदलाव करने की कोशिश बताया गया, जो बेशक उनके हिसाब से स्वागत योग्य और जरूरी थी, तो चुनाव आयोग का ईगो आगे आ गया और उसने तीसरी विशेषता का प्रदर्शन शुरू कर दिया। चुनाव आयोग ने दावा करना शुरू कर दिया कि उसने नियमों में कोई बदलाव नहीं किये हैं। सारे नियम ज्यों के त्यों हैं। कुछ भी नहीं बदला है। दस्तावेज बाद में लगाए जा सकते हैं, कच्ची सूची बनने के बाद, कच्ची सूची की समीक्षा के दौर तक। इस तरह, एक ओर चुनाव आयोग जो पहले दस दिन में एक करोड़ से थोड़े से ज्यादा फार्म ही जमा कर पाया है, बाकी प्रमाणों की शर्त स्थगित करने के जरिए, एक महीने की तय अवधि में प्रकट विफलता से बचने की कोशिश कर रहा है और दूसरी ओर, यह दावा किया जा रहा है कि आयोग ने नियमों में कोई छूट नहीं दी है, बस अब दस्तावेज बाद में लिए जा सकेंगे। यानी दस्तावेजों की उपलब्धता की जो करोड़ों मतदाताओं की समस्या है, उसे सिर्फ कुछ हफ्तों के लिए टाला भर गया है। 


इस तरह, जहां पहले ही गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया को लेकर इतने सारे भ्रम तथा कन्फ्युजन हैं, उसके संबंध में भ्रमों की धुंध और गहरी की जा रही है। इस धुंध की आड़ में, मतदाता सूची के पुनरीक्षण के नाम पर, नागरिकता के प्रमाण मांग कर एक हद तक एनआरसी थोपी जा रही होगी और करोड़ों भारतीयों का मताधिकार छीना जा रहा होगा और दूसरी ओर, चुनाव आयोग यह कहकर खुद को इसके लिए जिम्मेदारी से भी बचा रहेगा, उसने तो सिर्फ गहन पुनरीक्षण का, मतदाता सूचियों की साफ-सफाई का काम किया है। अब तो सर्वोच्च न्यायालय ही चुनाव आयोग को जनतंत्र पर यह बड़ा आघात करने से रोक सकता है। याद रहे कि यह खेल शुरू भले बिहार से किया गया है, आने वाले दिनों में पूरे देश को इस छद्म एनआरसी से गुजरना पड़ेगा, बशर्ते सुप्रीम कोर्ट इस सिलसिले पर रोक नहीं लगा दे। 


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)

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