जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र के प्रोफेसर एमेरिटस और अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने हाल ही में अपने लेख में ...
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र के प्रोफेसर एमेरिटस और अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने हाल ही में अपने लेख में कम्युनिस्ट और आरएसएस की शिक्षा संबंधी दृष्टियों के मूलभूत अंतर को रेखांकित किया है।
प्रो. पटनायक के अनुसार, भारत में कम्युनिस्ट शिक्षा संस्थाएं केवल वैचारिक प्रसार के लिए नहीं, बल्कि आम जनता के शिक्षा स्तर को ऊंचा उठाने के उद्देश्य से स्थापित करते रहे हैं। वहीं, उन्होंने आरोप लगाया कि आरएसएस जैसे "फासीवादी संगठन" शिक्षा को अपनी विचारधारा के प्रचार का माध्यम बनाने की प्रवृत्ति रखते हैं।
उन्होंने लिखा कि वामपंथी दृष्टिकोण शिक्षा को नजरिया विस्तृत करने और समाज को मुक्त करने वाला मानता है, जबकि "फासीवादी दृष्टिकोण" विचारों के विस्तार को भीतरघाती समझता है और स्वतंत्र चिंतन को दबाने की कोशिश करता है। इसके उदाहरण में उन्होंने नाजी जर्मनी में पुस्तकों के जलाने और भारत में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों पर कथित सरकारी हस्तक्षेप का उल्लेख किया।
पटनायक ने कहा कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, विश्व भारती, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली विश्वविद्यालय, पुणे फिल्म संस्थान और बड़ौदा विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं को कमजोर करने के प्रयास, देश की रचनात्मक सोच पर हमला हैं।
उन्होंने यह भी विश्लेषण किया कि नव-उदारवादी नीतियों ने बुद्धिजीवी वर्ग और मेहनतकश जनता के बीच दूरी बढ़ाई है। उनके अनुसार, बीते तीन दशकों में शिक्षकों और किसानों की आय वृद्धि में असमानता ने सामाजिक खाई को चौड़ा किया, पूर्व-पूंजीवादी दौर की सामुदायिक भावना को कमजोर किया और बुद्धिजीवियों को घरेलू समाज से काट दिया।
पटनायक का मानना है कि यह खाई नव-फ़ासीवाद के लिए हमले को आसान बनाती है। हालांकि, नव-उदारवाद के मौजूदा संकट में बुद्धिजीवियों और मेहनतकशों के हित फिर से जुड़ सकते हैं, जिससे लोकतंत्र और सहिष्णुता की रक्षा के लिए एक साझा मोर्चा संभव हो सकता है।
No comments